कुंडलिनी एवं शक्तिचालिनी क्रिया (भाग 1) –

प्रमुख शक्ति कुंडलिनी कही गई है,बुद्धिमान साधक उसे चालन क्रिया के द्वारा नीचे से ऊपर दोनो भृकुटियों के मध्य ले जाता है, इसी क्रिया को शक्तिचालिनी कहते हैं।

मुख्य रूप से कुंडलिनी चलाने अथवा जगाने के दो साधन कहे गए है –

★ सरस्वती चालन

★ प्राणरोध (प्राणायाम)

प्राणों के निरोध के अभ्यास से लिपटी हुई कुंडलिनी सीधी हो जाती है।

आईय अब जानते है सरस्वती चालन के बारे में।

 

सरस्वती चालन –

प्राचीन के काल के विद्वान इस सरस्वती को अरुंधति भी कहते थे।

जिस समय इड़ा नाड़ी चल रही हो अर्थात चन्द्र स्वर (बाए तरफ की नासिक) चल रही हो ,उस समय दृढ़ता पूर्वक पद्मासन लगाकर इसके (सरस्वती के) भली प्रकार संचालन करने से कुंडलिनी स्वयं चलने लगती है।

क्या करना है जानते है –

कुंडलिनी नाड़ी (कंदस्थान अथवा नाभि केंद्र) को 12 अंगुल लंबे और चार अंगुल चौड़े वस्त्र से लपेटना है। आज कल इस क्रिया हेतु चुम्बक के कमरबंध भी उपयोग में लिए जाते है।
घेरण्ड संहिता तथा हठयोग प्रदीपिका में इसी तरह की बात कही गई है।घेरण्ड संहिता में इतने स्थान पर श्वेत कोमल वस्त्र लपेट कर पूरे शरीर मे भस्म मलने की बात है और हठयोग प्रदीपिका में उस स्थान को उतने परिमाण से लिपटे वस्त्र जैसा कहा गया है।

अब आगे समझते है इसके बाद दृढ़ता पूर्वक दोनो नासा छिद्र को अंगुष्ठ एवं तर्जनी से पकड़कर अपनी इक्षा शक्ति से पहले बाए फिर दाएं नासिका के छिद्र से बार बार रेचक पूरक करें।

इस तरह निर्भय हो कर दो मुहूर्त = 4 घटी =16 मिनट तक इसको चलाना चाहिए ,साथ ही कुंडलिनी में स्थित सुषुम्ना नाड़ी को किंचित मात्र ऊपर खिंचे।

इस तरह से सरस्वती चालन क्रिया से कुंडलिनी सुषुम्ना नाड़ी के मुख में प्रवेश करके उर्ध्वगामी हो जाती है।इसके साथ ही प्राण अपना स्थान छोड़कर सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगता है।

कंठ संकोचन के सहित पेट को ऊपर खींचकर इस सरस्वती चालन से वायु उर्ध्वगामी होकर वक्षस्थल से भी ऊपर चला जाता है।

सरस्वती चालन करते समय सूर्य नाड़ी (दाहिना स्वर) के द्वारा रेचक करते हुए कंठ संकोचन करने से वायु वक्षस्थल से ऊपर की ओर गमन कर जाता है।

इसलिए नियमित रूप से सरस्वती संचालन करना चाहिए ।इसका संचालन करने वाला योगी सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है।

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