प्रथम को मूलबन्ध,दृतिय को उड्डियान बन्ध और तीसरे को जालंधर बन्ध कहते हैं।अब उनके लक्षण अर्थात साधना विधि समझते हैं।
मूलबन्ध –
शरीर के अधोभाग में विचरण करने वाले अपान वायु को ,गुदा को संकुचित करके बलपूर्वक ऊपर उठाने की प्रक्रिया को मूलबन्ध कहते हैं।
अपान वायु ऊर्ध्वगमन करके जब वहिरमण्डल से योग करता है,उस समय वायु से आहत हो कर अग्नि बहुत तेज हो जाती है।ततपश्चात उष्ण स्वरूप वाले प्राण में अग्नि और अपान के मिल जाने पर ,उसके प्रभाव से देहजन्य विकार जल जाते हैं।इसके बाद उस अग्नि से तप्त हो कर सुप्त कुंडलिनी जाग्रत हो कर प्रताड़ित की हुई सर्पिणी के समान फुंकारती हुई सीधी हो जाती है।उस समय यह अग्नि (कुंडलिनी) सुषुम्ना नाड़ी के भीतर प्रवेश कर जाती है इसलिए इस मूलबन्ध का अभ्यास योगियों को सदैव करते रहना चाहिए।
उड्डियान बन्ध –
कुम्भक करके जब रेचक करते है,उससे पहले उड्डियान बन्ध किया जाता है,जिसके करने से यह प्राण सुषुम्ना नाड़ी के भीतर ऊर्ध्वगमन करता है,इसलिए योगीजनों द्वारा यह उड्डियान कहलाता है।इसके लिए वज्रासन में बैठ कर पैरों पर दोनो हाथों को दृढ़ता पूर्वक रखें।जहां टखना रखा जाता है,उसके समीपस्थ कंद को दबाते हुए ,पेट को ऊपर की ओर खींचते हुए,गला एवं हृदय को भी तनाव देते हुए खींचना चाहिए,इस प्रकार प्राण धीरे धीरे पेट की संधियों में प्रवेश कर जाता है,इससे पेट के समस्त विकार दूर हो जाते हैं।इसलिए इस क्रिया को निरंतर करते रहना चाहिए।
जालंधर बन्ध –
पूरक के अंत मे वायु को रोकने के लिए कंठ संकुचन क्रिया करते हैं,जिसे जालंधर बन्ध कहते हैं।
मूलबन्ध के द्वारा अधोभाग में गुदा संकुचन करके कंठ संकुचन अर्थात जालंधर बन्ध करें,बीच में उड्डियान बन्ध के द्वारा प्राण वायु को खींचना चाहिए।इस तरह प्राण को सब ओर से रोकने से वह सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करके उर्ध्वगामी होता है।