जब मनुष्य कामनाबद्ध होकर विषयो की ओर दौड़ता है,उस समय विषयो को प्राप्त करते हुए कामनाएं बढ़ती जाती है।इसलिए विषय और कामना दोनो से अलग होकर (आत्मा में ध्यान लगाते हुए) ही विशुद्ध परमात्मभाव की प्राप्ति की जा सकती है।अपना हित चाहने वाले को समस्त मिथ्या विषयो को छोड़कर शक्ति (कुंडलिनी) के मध्य में मन को स्थिर करके उसी में स्थिर रहना चाहिए।
मन को चेतन सत्ता -शक्ति के मध्य स्थिर करना ‘स्व’ का चेतन में वास कहा जाता है।जब चेतन में वास होता है,तो शरीर को किन्ही लौकिक संसाधनों की आवश्यकता नही पड़ती।जब तक शक्ति में वास (पूरी तरह स्थिर होना) न सधे ,तब तक यत्नपूर्वक ‘उपवास’ चेतना में आंशिक रूप से रहने का अभ्यास करना चाहिए।उपवास की स्थिति में शरीर के लिए न्यूनतम आहार देकर भी उसे सक्रिय और संतुष्ट रखा जा सकता है।उपवास साधना को शक्ति में वास की साधना का पूर्व अभ्यास कहा जा सकता है।

मन से मन को देखते हुए उसकी गतिविधियों का निरीक्षण करके उनसे मुक्त होने को ही परम पद कहा गया है। मन ही बिंदु है और वही जगतप्रपंच की उतपत्ति एवं स्थिति का मुख्य कारण है।

जिस प्रकार दूध से घी निकलता है उसी प्रकार मन से बिंदु प्रकट होता है।जो भी बंधन है,मन मे है,बिंदु में नही।

जो शक्ति सूर्य और चन्द्र अर्थात इड़ा-पिंगला नाड़ियों में स्थित है,वही बंधन कारक है,यह जानकर उन (ब्रह्मा,विष्णु,रुद्र ग्रन्थियों का भेदन करके प्राणवायु को सुषुम्ना में गतिमान करना चाहिये,जो इन दोनों के मध्य में स्थित है।

बिंदु स्थान में प्राण को रोककर वायु का निरोध नासिक के द्वारा करना चाहिए।बिंदु ,सत्व एवं प्रकृति का विस्तार यह प्राणवायु ही है।

षट्चक्रों को जानकर (उसे भेदकर) सुखमण्डल (सहस्त्रार चक्र) में प्रवेश करें।मूलाधार,स्वाधिष्ठान, मणिपुर,अनाहत,विशुद्ध, और आज्ञा ये छह चक्र कजे गए हैं।गुदास्थान कि समीप मूलाधार ,लिंग के समीप स्वाधिष्ठान ,नाभिमण्डल में मणिपुर,हृदय में अनाहत,कंठमुल में विशुद्ध चक्र एवं मस्तक में आज्ञाचक्र स्थित होता है।

षट्चक्रों की जानकारी प्राप्त करके प्राण को आकर्षित करके सुखमण्डल अर्थात परमानंदमयी सहस्त्रार में प्रवेश करें और उसे उर्ध्वगामी दिशा में नियोजित करें।

इस तरह से अभ्यसित होकर प्राण ब्रह्मांड में स्थित हो जाता है अर्थात ब्रह्मांड का ज्ञान हो जाता है।समुचित रूप से चित्त,प्राण वायु,बिंदु एवं चक्र का अभ्यास हो जाने पर योगियों को परमात्मा से एकाकार होकर समाधि अवस्था मे पहुच कर अमृत तत्व की प्राप्ति हो जाती है।जिस तरह पत्थर में अग्नि है,परन्तु बिना रगड़े हुए प्रज्वलित नही होती ,उसी प्रकार बिना निरंतर अभ्यास किये हुए योगविद्या का प्रकाश बाहर नही आ सकता।

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